हे कृष्ण ये गीता ज्ञान कर्म करो फल की इच्छा नहीं किन्तु यदि कर्म फल चाह नहीं फिर क्यों ये कर्म युद्ध छिपी नहीं क्या इसमें चाह चाह राज करने की जीवन यदि नश्वर फिर क्यों युद्ध नश्वर शरीरो से आत्मा अजर अमर तो चलो उसी अजरता का उल्लास मनाये हे पार्थ सारथि ये ज्ञान तो ले चला संन्यास की ऒर मौन कृष्ण सोच रहे काश दे पाता मैं राधा को गीता ज्ञान कृष्ण को पाने की व्याकुलता से पाती मुक्ति सिर्फ प्रेम प्रेम फल चाह नहीं यही है गीता ज्ञान विचारते कृष्ण क्यों रची ये सृष्टि यदि सब नश्वर तो फिर क्यों ईश्वर.....................
मौन समन्दर
खामोश लहरें
सहमी चांदनी
कुछ सुनने की कोशिश करते
गुमसुम देखते
रेत के टीले
नम आँखों में
थे जो सपने सीले सीले
उदास सोचते सब
मासूम सपनो का
कातिल है कौन
ये रास्ता
ये पेड़ ये हवा
धूप छाँव ये जीवन की
पूछती मंजिले
सारी कायनात
शाम की बारिश में
जो साथी था छूटा
उसके सपनो का
कातिल है कौन
एक तपिश
आती जाती हवा में
बदन को छुए
दूर कही सरहद पे
लाशो के गुमनाम ढेर
जलते हुए…….
खाली आँखों में पले
जीवन के सपने
आंसुओ से खाली हुए
लगते है जैसे
दूर कही आसमां में
कुछ तारे रोते हुए,..........
तुम क्यों नहीं हो मेरे साथ
माना कि मैं
नहीं निरपराध
मगर
सजा और भी कुछ हो सकती थी
मन छोटा नहीं था
मेरा अपराध
लेकिन
ये अलगाव
जितना दर्द भरा
उससे ज्यादा दर्द भरा ये अहसास
तुम तिल तिल कर जल रहे होगे
क्यों कि
तुम भी नहीं हो मेरे साथ